कभी िकसी को...
कभी िकसी को मुक्कमल जहान नहीं िमलता,
िकसी को जमीन, िकसी को आसमान नहीं िमलता,
इस खुडाई को हमने क्या समझा, और ये क्या िनकली,
यहाँ खुद को देखने के िलये आईना नहीं िमलता,
इस दुिनया में घुमें बहुत, और हमें,
इंसान से चेहरे बहुत िमले, पर इंसान नहीं िमलता,
दर्या, झरना िझल, समंदर, सब में डुबें आयें हैं,
पर तेरी आँखों की गहराई सा कहीं, सुकुन नहीं िमलता,
दुिनया के दस्तुर ने, रासतें अलग तो कर िदये,
पर तेरे िबन इस िजंदगी का, मक्सद नहीं िमलता,
कभी िकसी को मुक्कमल जहान नहीं िमलता,
िकसी को जमीन, िकसी को आसमान नहीं िमलता |
कभी िकसी को मुक्कमल जहान नहीं िमलता,
िकसी को जमीन, िकसी को आसमान नहीं िमलता,
इस खुडाई को हमने क्या समझा, और ये क्या िनकली,
यहाँ खुद को देखने के िलये आईना नहीं िमलता,
इस दुिनया में घुमें बहुत, और हमें,
इंसान से चेहरे बहुत िमले, पर इंसान नहीं िमलता,
दर्या, झरना िझल, समंदर, सब में डुबें आयें हैं,
पर तेरी आँखों की गहराई सा कहीं, सुकुन नहीं िमलता,
दुिनया के दस्तुर ने, रासतें अलग तो कर िदये,
पर तेरे िबन इस िजंदगी का, मक्सद नहीं िमलता,
कभी िकसी को मुक्कमल जहान नहीं िमलता,
िकसी को जमीन, िकसी को आसमान नहीं िमलता |
-- चेतन भादरीचा